Rajpurohit राजपुरोहित समाज का इतिहास

यह संक्षिप्त इतिहास सर्वप्रथम प्रकाशित पुस्तक रिपोर्ट मरदु-मशुमारी राज मारवाड़ सन् 1891 के तीसरे हिस्से की दुष्प्राप्य प्रति राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर में उपलब्ध है, से संकलित किया गया है। इसके अतिरिक्त अन्य सामग्री का भी प्रयोग किया गया है। इसके द्वारा हमें प्रत्येक खांपों की जानकारी प्राप्त होती है। आशा है समाज के प्रत्येक वर्ग को रूचिकर एवं नई जानकारी प्राप्त होगी।
                        (पुस्तक की मौलिकता को ध्यान में रखते हुए भाषा नहीं बदली गई है।)
मारवाड़ एवं थली में राजपुरोहित (जमीदार) अन्य ब्राह्मणों की अपेक्षा अधिक है। ये लोग राजपूतो को मोरूसी गुरू है और पिरोयत (पुरोहित) कहलाते है। अगर हम इतिहास पर एक दृष्टि डाले तो पायेंगे कि राजपुताने में राजपुरोहितो का इतिहास में सदैव ही ऐतिहासिक योगदान रहा है। ये राज-परिवार के स्तम्भ रहे है। इन्हे समय-समय पर अपनी वीरता एवं शौर्य के फलस्वरूप जागीरें प्राप्त हुई है। उत्तर वैदिक काल में भी राजगुरू पुरोहितो का चयन उन श्रेष्ठ ऋषि-मुनियों में से होता था जो राजनीति, सामाजिक नीति, युद्धकला, विद्वता, चरित्र आदि में कुशल होते थे । कालान्तर में यह पद वंशानुगत इन्ही ब्राह्मणों में से अपने-अपने राज्य एवं वंश के लिए राजपुरोहित चुने गये । इसके अतिरिक्त राजाओं की कन्याओं के वर ढूंढना व सगपन हो जाने पर विवाह की धार्मिक रीतियां सम्पन्न करना तथा नवीन उत्तराधिकारी के सिंहासनासीन होने पर उनका राज्याभिषेक करना आदि था । ये कार्य राज-परिवार के प्रतिनिधि व सदस्य होने के कारण करते थे । वैसे साधारणतया इनका प्रमुख व्यवसाय कृषि मात्र था । पिरोयतो की कौम एक नहीं अनेक प्रकार के ब्राह्मणों से बनी है। इस कौम का भाट गौडवाड़ परगने के गांव चांवडेरी में रहता है। उसकी बही से और खुद पिरोयतो के लिखाने से नीचे लिखे माफिक अलग-अलग असलियत उनकी खांपो की मालूम हुई है। 
                                                       (1) राजगुर पिरोयत:-
                                                राजगुरू जाति की कुलदेवी – सरस्‍वती माता ( अरबुदा देवी)
      यह कि पंवारो के पुरोहित है और अपनी पैदाईश पंवारो के माफिक वशिष्ट ऋर्षि के अग्नि कुंड से मानते है । जो आबू पहाड़ के ऊपर नक्की तालाब के पास है। इनका बयान है कि पंवार से पहले हमारा बड़ेरा राम-राम करता पैदा हुआ, जिससे उनसे कहा कि ‘‘तुं परमार हूं गुर राजरो’’ यानि आप बैरियों को मारने वाले है, और मैं आपका गुरू हूं । परमार ने उसको अपना पुरोहित बना कर राजगुर पदवी और अजाड़ी गांव शासन दिया जो सिरोही रियासत में शामिल था । सबसे पुराना राजगुर पिरोयतो का है। मारवाड में भी सीलोर और डोली वगैरा कई गांव शासन सिवाने और जोधपुर में है, और इनकी खांपे –
1. आँबेटा,  2 करलया,  3. हराऊ,  4. पीपलया,          5. मंडार,  6. सीदप, 7. पीडिया,  8. ओझा,          9. बरालेचा,  10. सीलोरा,  11 बाड़मेरा,  12 नागदा । 
इनमें से सीदप पहले चौहानों के भी पिरोयत हो गये थे मगर फिर किसी कारण से नाराज होकर छोड़ बैठे । अब उनकी जगह दूसरी खांप के राजगुरू उनके पिरोयत है।  सीदप के शासन गांव, टीबाणिया, फूलार, जुड़िया, अणरबोल, पंचपद्रा, शिव और सांचोर के परगनों में है। 
                                                                  (2) ओदिचा पिरोयत:-
                                                       नेतड जाति की कुलदेवी – बाकलमाता 
      ये देवड़ों के पिरोयत हैं, और अपने को उदालिक ऋषि की औलाद में से बताते है। इनकी खापें:-
1. फॉदर्र,  2. लाखा, 3. ढमढमिया, 4. डीगारी,  5. डाबीआल, 6. हलया    7.केसरियो  8. बोरा  9. बाबरिया         
10. माकवाणा  11. त्रवाडी  12 रावल  13 कोपाऊ  14 नेतरड़   15. लछीवाल  16. पाणेचा      17. दूधवा 
     इनके भी कईशासक गांव मारवाड़ में है जिनमें बड़ा गांव बसंत गोडवाड़ परगने में राणाजी का दिया हुआ है जिनकी आमदनी उस समय पांच सात हजार रूपये थी ।
                                                                      (3) जागरवाल पिरोयत:-
                                                            जागरवाल जाति की कुलदेवी – ज्‍वाला देवी
       ये अपना वंश बाल ऋषि से मिलाते है और सिंघल राठौड़ो के पिरोयत है जिनके साथ शिव और कोटड़े से जेतारण आये जहां अब तक खेड़ी इनका शासन गांव है। जब राव मालदेव जी ने सिंधलो को जेतारण में से निकाल दिया था तो उनको राणाजी ने अपने पास रख कंवला वगैरा 18 गांव गोड़वाड़ में दिये थे जिनमें से उन्होने 5-6 गांव न पिरोयतो को भी दिये जिनकी जमा 10 हजार से 15 हजार थी । इनके शासन गांव-
1. पूनाड़िया 2. ढोला का गांव  3. आकदड़ा  4. ढारिया  5. चांचोड़ी  6. सूकरलाई 
जागरवाल की कोई अलग से खांप नहीं है।
                                                                   (4) पांचलोड पिरोयत:-
                                                                                              पांचलोड जाति की कुलदेवी – चामुण्‍डा माता 
ये भी राजगुरो के अनुसार आबू पहाड़ से अपनी उत्पत्ति मानते है और अपने को परासर ऋर्षि की औलाद में बताते है । इनकी भी कोई खांप नहीं है और इनका शासन गांव बागलोप परगने सिवाने में है। 
(5) सीहा पिरोयत:-
     ये कहते है कि हम गौतम ऋषि की औलाद है और पुष्करजी से मारवाड़ में आये हैं। इनकी खांपे –
     1. सीहा  2. केवाणचा  3. हातला  4. राड़बड़ा  5. बोतिया 
     इनमें से केवाणचों के खडोकड़ा और आकरड़ा दो बड़े शासन गांव गोडवाड़ में राणाजी के दिये हुए है।
                                                                      (6)पल्लीवाल पिरोयत:-
                                                                                       गुन्‍देशा व मुथा जाति की कुलदेवी – रोहिणी माता
     ये पल्लीवाल ब्राह्मणों में से निकले है जब पाली मुसलमानों के हाथो से बिगड़ी तो इनके बडेरे पिरोयतो के साथ सगपन करके उनके साथ शामिल हुए । इनकी खांपे –   
1.गूंदेचा  2. मूंथा  3. चरख  4. गोटा 5. साथवा 6. नंदबाणा7. नाणावाल   8. आगसेरिया  9. गोमतवाल  10. पोकरना  11. थाणक 12. बलवचा 13. बालचा          14. मोड  15. भगोरा    16. करमाणा  17.धमाणिया 
ये सिसोदियों के पिरोयत है क्योंकि परगने गोडवाड़ में अकसर गांव उदयपुर के महाराणा साहिब के बुजरगो के दिये हुए इनके पास हैं जिनमें गूंदेचा, मूंथो और बलवचों के पास तो एकजाई गांव बड़े-बड़े उपजाऊ के है। जिनमें गूंदेचा के पास मादा, बाड़वा और निम्बाड़ा, मूथों के पास पिलोवणी, घेनड़ी, भणदार, रूंगडी और शिवतलाब तथा बलवचो के पास पराखिया व पूराड़ा है।
इन शासन गांवो के बाबत एक अजीब बात सुनने में आई है कि राणा मोकलजी सिरोही से शादी करके चितौड़ जाते वक्त जब गोडवाड़ पहुंचे तो इन गांवो में से होकर गुजरे और गोडवाड़ का परगना सिरोही के इलाके और पश्चिम मेवाड़ से ज्यादा आबाद है जहां बारों महिने खेतो में पानी की नहरे जारी रहती है जिनसे खेत हमेशा हरे भरे दिखाई देते है और कोयले दरखतो पर कूका करती है और ये सब सामान उस मुसाफिर के लिए कि जो मारवाड़ ऊजड़ और बनजर रेगिस्तान से गोडवाड में आवे या मेवाड़ और सिरोही के खुश्क पहाड़ो से वहां गुजरे बहुत कुछ मोहित और प्रफुल्लित होने का हेतु होता है। देवड़ी रानी जिसने अपने बाप के राज में कभी यह बहार और शोभा नहीं देखी थी, इन गांवो की तर और ताजा हालत देखकर बहुत खुश हुई और वे दस पांच दिन उसके बहुत खुशी और दिल्लगी में गुजरे मगर जब गोडवाड के आगे मेवाड़ की पहाड़ी सरहद में सफर शुरू हुआ और वह शोभा फिर देखने में नहीं आई तो एक दिन उसने बड़े पछतावे के साथ राणाजी से कहा कि पिछे गांव तो बहुत अच्छे आये थे । अफसोस हे कि वे सब पीछे रह गये । राणाजी ने जबाब दिया कि जो मरजी हो तो उनको साथ लिजीये । राणाजी ने उसी वक्त पिरोयतो को बुला कर वे सब गांव संकल्प कर दिये और रानी से कहा कि अब ये गांव इस लोक और परलोक में हमारे तुम्हारे साथ रहेगे ।
                                                                          (7) सेवड़ पिरोयत:-
                                                    सेवड जाति की कुलदेवी – बिसहस्‍त माता
    
     यह जोधा तथा सूंडा राठोडो इके पिरोयत है । इनका कथन है कि इनके पूर्वज गौड़ ब्राह्मण थे । इनके कथन के अनुसार इनके बडेरे देपाल  कन्नोज से राव सियाजी के साथ आये थे। सियाजी ने इनको अपना पुरोहित बनाया और वे मारवाड के पिरोयतो में सगपन करके इस कौम में मिल गये । 
मारवाड़ में ज्यों ज्यों राठौड़ो का राज बढ़ता गया सेवड़ पिरोयतो को भी उसी तरह ज्यादा से ज्यादा शासन गांव मिलते रहे और उनकी औलाद भी राठौड़ो के अनुसार बहुत फैली । आज क्या जमीन, क्या आमदनी और क्या जनसंख्या में सेवड़ पिरोयत कुल पिरोयतो से बढ़े हुये है।        देपाल जी से कई पुश्त पीछे बसंतजी हुए । उनके दो बेटे बीजड़जी और बाहड़जी थे  बीजड़जी मलीनाथ जी के पास रहते थे । कंरव जगमाल जी ने उनको बीच में देकर अपने काका जेतमाल जी को सिवाने से बुलाया और दगा से मार डाला । बीजड़जी इस बात से खेड़ छोड़कर बीरमजी के पास चले गये । राव चूंडाजी ने जब सम्वत् 1452 में मंडोर का राज लिया तो उनकी या उनके बेटे हरपाल को गेवां बागां और बड़ली वगैरा कई गांव मंडोर के पास-पास शान दिये। बाहड़जी के कूकड़जी के राजड़जी हुए जिनकी औलाद के शासन गांव साकड़िया और कोलू परगने शिव में है। हरपाल के पांच बेटे थे:-
1.रूद्राजी – इनके तीन बैटे खींदाजी, खींडाजी और कानाजी थे । खींदाजी के खेताजी, खेताजी के रायमल, रायमल के पीथा जी जिसकी औलाद में शासन गांव बड़ली परगने जोधपुर है। रायमल का बेटा उदयसिंघ था । उसके दो बेटे कूंभाजी और भारमल हुए । कूम्भाजी की औलाद का शासन गांव खाराबेरा परगने जोधपुर में और भारमल की औलाद का शासन गांव धोलेरया परगने जालौर में है।
खींडाजी की औलाद का शासन गांव टूकलिया परगने मेड़ता में है। कानाजी की औलाद में शासन गांव पाचलोडिया, चांवडया, प्रोतासणी और सिणया मेड़ता परगने के हैं।2.दूसरा बेटा हरपाल का देदाजी, जिसकी औलाद के शासन गांव बावड़ी छोटी और बड़ी परगने फलौदी, ओसियां का बड़ा बास और बाड़ा परगने जोधपुर है।
3.तीसरा दामाजी । ये राव रिड़मलजी के साथ चितौड़ में रहते थे । जिस रात कि सीसोदियो ने रावजी को मारा और राव जोधाजी वहां से भागे तो उनका चाचा भीभी चूंडावत ऐसी गहरी नींद में सोया हुआ था कि उसको जगा-जगा कर थक गये मगर उसने तो करवट भी नहीं बदली । लाचार उसको वहीं सोता हुआ छोड़ गये । दामाजी भी उनके पास रहा । दूसरे दिन सीसोदियो ने भीम को पकड़ कर कतल करना चाहा तो दामाजी ने कई लाख रूपये देने का इकरार करके उसको छुड़ा दिया और आप उसकी जगह कैद में बैठ गये । कुछ दिनों पीछे जब सीसोदियो ने रूपये मांगे तो कह दिया कि मैं तो गरीब ब्राह्मण हूं । मेरे पास इतने रूपये कहा । यह सुनकर सीसोदियो ने दामाजी को छोड़ दिया। जोधाजी ने इस बंदगी में चैत बद 15 सम्वत् 1518 के दिन गयाजी में उनको बहुत बड़ा शासन दिया जिसकी आमदनी दस हजार रूपये से कम नहीं थी । दामाजी के जानशीन तिंवरी के पुरोहितजी कहलाते हैं। गांव तिंवरी जोधपुर परगने के बड़े-बड़े गांवो में से एक नामी गांव नौ कोस  की तरफ है।
     दामाजी पिरोयतो में बहुत नामी हुए हैं और उनकी औलाद भी बहुत फैली कि एक लाख दमाणी कहे जाते हैं । यानि एक लाख मर्द औरत बीकानेर, मारवाड़, ईडर, किशनगढ़ और रतलाम वगैरा राठोड़ रियासतों में सन् 1891 तक थे । इनके फैलाव की हद उत्‍तर की तरफ गांव नेरी इलाके बीकानेर जाकर खत्म होती है और यही पिरोयतो के सगपन की भी हद थी जिसके वास्ते मारवाड़ में यह औखाणा मशहूर है ‘‘गई नैरी सो पाछी नहीं आई बैरी’’ यानि जो औरत नैरी में ब्याही गई फिर वह पाछी नहीं आई क्योंकि जोधपुर से सौ डेढ़ सौ कोस का फासिला है और इसी वजह से पिरोयतो की औरतों में ढ़ीट लड़कियों को नैरी में ब्याहने की एक धमकी है। वे कही है कि तू जो कहना नहीं करती है तो तुझको नैरी में निकालूंगी कि फिर पीछी नहीं आ सके । दामाजी के छः बेटे थे:-1.नाडाजी (ना औलाद) जिसने जोधपुर के पास नाडेलाव तालाब बनाया । 2.बीसाजी । इन्होंने बीसोलाव तालाब खुदाया था । इसका बेटा कूंपाजी और कूंपाजी के तीन बेटे, केसूजी, भोजाजी, और मूलराज जी । केसोजी की औलाद में शासन गांव घटयाला परगने शेरगढ़ है। भोजाजी की औलाद में शासन गांव तालकिया परगना जेतारण है। मूलराज जी ने मूलनायक जी का मन्दिर जोधपुर में और एक बड़ा कोट गांव भैसेर में बनवाया जिससे वह भैसेर कोटवाली कहलाता है। इनके बेटे पदम जी के कल्याणसिंघ जी जिन्होने तिंवरी में रहना माना । इनके बड़े बेटे रामसिंघ, उनके मनोहरदास, उनके दलपतजी थे । ये बैशाख बद 9 सम्वत् 1714 को उज्जैन की लड़ाई में काम आये जो शहजादे औरंगजेब और महाराजा श्री जसवंत सिंह जी में हुई थी । दलपतजी के अखेराज महाराज श्री अजीतसिंह जी के त्रिके में हाजिर रहे । अखेराज के सूरजमल, उनके रूपसिंघ, उनके कल्याणसिंघ, उनके महासिंघ (खोले आये) महासिंघ के दोलतसिंघ, दोलतसिंघ के गुमानसिंह जो आसोज सुदी 8 सं. 1872 को आयस देवनाथ जी के साथ किले जोधपुर में नवाब मीरखांजी के आदमियों के हाथ से काम आये, उनके नत्थूसिंघ, उनके अनाड़सिंघ उनके भैरूसिंघ उनके हणवतसिंघ जो अब तिंवरी के पिरोयत है। इनका जन्म सं. 1923 का है। दूसरे बेटे अखेराज के केसरीसिंघ जो अहमदाबाद की लड़ाई में काम आये। इनके दो बेटे प्रताप सिंह, अनोपसिंघ थे । प्रतापसिंघ की औलाद का शासन गांव खेड़ापा परगने जोधपुर है जहां रामस्नेही का गुरूद्वारा है। अनोपसिंह की औलाद का शासन गांव दून्याड़ी परगने नागौर है। तीसरे बेटे अखेराज के जयसिंघ की औलाद का शासन गांव जाटियावास परगने बीलाड़ा है। चौथे बेटे महासिंघ के चार बेटे सूरतसिंह, संगरामसिंह, लालसिंह, चैनसिह की औलाद का शासन गांव खीचोंद परगना फलोदी है। पांचवे बेटे विजयराज के बड़े बेटे सरदार सिंघ की आलौद का शासन भेंसेर कोतवाली दूसरे बेटे राजसिंह की औलाद का भेंसेर कूतरी परगने जोधपुर, तीसरे और चौथे बेटे जीवराज और बिशन सिंह की औलाद का आधा-आधा गांव भावड़ा परगने नागौर शासन है। छटा बेटा महासिंघ का तेजसिंह सूरजमल के खोले गया, सातवें बेटे फतहसिंघ का छटा बंट गांव भावड़ा में है। कल्याणसिंह  के दूसरे बेटे गोयंददास जी औलाद का शासन गांव ढडोरा परगने जोधपुर और तीसरे बेटे रायभान की औलाद का शासन गांव भटनोका परगने नागौर है। मूलराज के दूसरे बेटे महेसदास की औलाद का शासन गावं चाड़वास परगने सोजनत में है तीसरे बेटे छताजी की औलाद का शासन गांव धूड़यासणी परगने सोजत में हैं चौथे रायसल का मालपुरया पगरने जेतारण परगने में हैं  छोटे भानीदास का गांव भेाजासर बीकानेर में है। 3.तीसरा बेटा दामाजी का ऊदाजी जिसकी औलाद के शासन गांव बिगवी और थोब परगने जोधपुर में है। 4.चौथा बेटा दामाजी का बिज्जाजी जिसकी औलाद में शासन गांव घेवड़ा परगने जोधपुर, रूपावास परगने सोजत और मोराई परगने जैतारण है। 5.दामाजी का पांचवा पुत्र पिरोयत विक्रमसी यह जोधपुर के राव जोधाजी के कंवर बीकाजी के साथ 01 अक्टूबर 1468 को जोधपुर से (बीकानेर) नये राज्य को जीतने के लिए रवाना हुए इनका वंश अपनी वीरता एवं शोर्य के लिए रियासत बीकानेर के स्तम्भ रहे और इनको पट्टे में मिले गांव इस रियासत में है। विक्रमसी का पुत्र देवीदास 29 जून 1526 को जैसलमेर में सिंध के नवाब से युद्ध करते हुए वीर गति को प्राप्त हुए इनको इस वीरता एवं जैसलमेर पर अधिकार करने के फलस्वरूप गांव तोलियासर एवं 12 अन्य गांव पट्टे में मिले एवं पुरोहिताई पदवी मिली । देवीदास के पुत्र लक्ष्मीदास 12 मार्च 1542 को जोधपुर के राव मालदेव के बीच युद्ध में काम आये बड़े पुत्र किशनदास को उनकी वीरता के लिए थोरी खेड़ा गांव पटटे में मिला जिनके पोते मनोहर दास ने इस गांव का नाम किसनासर रखा। किसनदास के पुत्र हरिदास ने हियादेसर बसाया । सूरसिंह के गद्दी पर बैठने के बाद तोलियासर के पुरोहित मान महेश की जागीर जब्त करली इसके विरोध में मान महेश ने गढ़ के समाने अग्नि में आत्मदाह कर लिया जहां अब सूरसागर है इसके बाद से तोलियासर के पुरोहितो से पुरोहिताई पदवी निकल गई लगभग 1613 में यह पदवी कल्याणपुर के पुरोहितो को मिली । हरिदास के लिखमीदास व इनके गोपालदास व इनके पसूराम जी हुए इनके पुत्र कानजी को आठ गांव संवाई बड़ी, कल्याणपुर, आडसर, धीरदेसर, कोटड़ी, रासीसर, दैसलसर और साजनसर पट्टे में मिले इनके सात पुत्रों का वंश अब भी इन गांवो में है। बीकानेर राज्य के इतिहास में सन् 1739 में जगराम जी, सन् 1753 में रणछोड़ दास जी, सन् 1756 में जगरूप जी, सन् 1768 में ज्ञान जी सन् 1807 में जवान जी, सन् 1816 में जेठमल जी, सन् 1818 में गंगाराम जी व सन् 1855 में प्रेमजी व चिमनराम का जीवन वीरता एवं शौर्य के लिए प्रसिद्ध रहा है। कल्याणपुर के टिकाई पुरोहित शिवनाथ सिंह जी के इन्तकाल के बाद पुत्र भैरूसिंह जी की रियासत से नाराजगी के बाद से यह पदवी कोटड़ी गांव के पुरोहित हमीरसिंह जी को मिली । इसके बाद इनके बड़े पुत्र मोतीसिंह जी व उसके बाद स्व. मोतीसिंह जी के बड़े पुत्र श्री भंवरसिंह टिकाई है। 6.दादोजी का छटा पुत्र देवनदास जिसके बड़े बेटे फल्लाजी का शासन गांव नहरवा दूसरे बेटे रामदेव का पापासणी परगने जोधपुर में है फल्ला ने फल्लूसर तलाब बनाया जिसको फज्जूसर भी कहते है। मारवाड़ एवं थली के अलावा किशनगढ़, ईडर, अहमदनगर और रतलाम वगैरा राठोड़ रियासतो में भी सेवड़ पिरोयतो के शासन गांव है। सेवड़ो की तीन खांपे हैं 1- अखराजोत 2. मालावत 3. कानोत अखराजोत वंश के पास जोधपुर जिले के तिंवरी ग्राम में आठ कोटड़ियां है। मालावतो के पास पाली, सोजत और जेतारण में गांव है कानोतो के गांव थली में है। 
 ( 8 ) सोढा पिरोयत :-
                                                                  सोढा जाति की कुलदेवी – चक्रेश्‍वरी देवी
    
       ये अपने मूल पुरूष सोढ़ल के नाम से सोढ़ा कहलाते हैं। इनके बडेरे भी देपाल की तरह दलहर कन्नोज से राव सियाजी के साथ आये थे दलहर के बेटे पेथड़ को राव धूड़जी ने गांव त्रिसींगड़ी जो अब परगने पचभद्दरे में है शासन दिया था इसके वंश वाले रासल मलीनाथ जी और जैतमाल जी की औलाद महेचा और धवेचा राठोड़ो के पुरोहित हैं और इनके शासन गांव जियादातर इन्हीं खांपो के दिये हुए मालाणी सिवाणों और शिव वगैरा परगने में है।
   (9) दूधा पिरोयत:-  
ये श्रीमाली ब्राह्मणों में से निकले हैं इनका बडेरा केसर जी श्रीमाली का बेटा दूधाजी चितौड़ के राणा मोकलजी ने उन्हे गैर इलाको से घोड़े खरीद कर लाने के लिए बाहर भेज दिया था । घोड़े खरीदने पर अपनी नियुक्ति स्वीकार करने के अपराध में मारवाड़ ब्राह्मणों ने उन्हे जाति च्युत कर दिया और ये सब रिश्तेदारो सहित पिरोयतो में मिल गये । इस खां में कोई बड़ा शासन गांव नहीं है इनकी मुख्य खांपे 17 हैं।
(10) रायगुर पिरोयत:-
                                                                         रायगुर जाति की कुलदेवी – आशापुरा माता
ये सोनगरे चौहानो के पुरोहित हैं। इनका बयान है कि जालोर के रावे कानड़देव के राज में अजमाल सोनग्रा राजगुर पिरोयत हरराज के खोले चला गया उसकी औलाद रायुगर कहलायी । इनके शासन गांव ढाबर, पुनायता परगने पाली, साकरणा परगने जालोर और पातावा परगने वाली है
                                                                 (11) मनणा पिरोयत :-
                                                                       मनणा जाति की कुलदेवी – चामुण्‍डा ( जोगमाया )
    इनके पूर्वज गोयल राजपूत का गुरू था किसी कारण वंश पिरोयतों में मिल गये । इनके शासन गांव मनणों की बासणी सरबड़ी का बास और कालोड़ी वगैरा है।
 (12) महीवाल:- ये पंवार राजपूतो से पिरोयत बने है।
 (13) भंवरिया:- ये आदगोड ब्राह्मणों से निकले है पूर्वकाल में यह रावलोत भाटी राजपूतो के पुरोहित थे जब देराबर का राज भाटियों से छूटा तो इनकी पिरोताई भी जाती रही । इनका शासन गांव कालोट परगना मालानी में है। 
                  जोशी जाति की कुलदेवी – क्षेमंकारी माता                           पांचलोड जाति की कुलदेवी – चामुण्‍डा माता
             रिदुआ जाति की कुलदेवी – सुन्‍धा माता                            सेपाउ जाति की कुलदेवी – हिगंलाज माता
             उदेश जाति की कुलदेवी – मम्‍माई माता                             व्‍यास जाति की कुलदेवी – महालक्ष्‍मी माता 
                                 
                                   राजपुरोहित: संक्षिप्त वंश परिचय
                                                 प्रस्तावना:-

    पुरातनकाल में आर्यो ने कार्य के आधार पर चार वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र तथा चार आश्रम – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यास का निर्माण किया । इसके साथ ही संयुक्त परिवार प्रथा आरम्भ हो गई । ऋग्वेद के अनुसार राजनीति एवं जाति विस्तार संयुक्त परिवार की ही देन है। जाति विस्तार के कारण अलग-अलग राज्यों की स्थापना की आवश्यकता हुई एवं ‘‘राजा’’ पद का सृजन हुआ, साथ ही राज्य प्रशासन, सैनिक, धार्मिक नियम पथ प्रदर्शक व राजा के मार्गदर्शन एवं उस पर अंकुश रखने हेतु ‘‘राजपुरोहित’’ अथवा ‘‘राजगुरू पुरोहित’’  पद भी महाऋषियों में से सृजित किया गया जो कि अत्यन्त ही महत्वपूर्ण एवं प्रभावशाली था क्योंकि राजपुरोहित ही सर्वसम्मति से राजा का चयन करता था।
वंश परिचय:- 1600 ई. म.से. पूर्व अर्थात् 4500-5000 साल पूर्व
समस्त महाऋषियों, मुनियों में से सर्वश्रेष्ठ, पराक्रमी, उच्च प्रगाढ़ राजनीतिज्ञ, उच्च चरित्रवान, प्रतिज्ञ, निष्ठावान, त्यागी, दूरदर्शी, दयावान, प्रशासन, निपुण, प्रजापालक, सामाजिक व्यवस्थापक, अस्त्र- शस्त्र, युद्ध विद्या, रणकौशल, धनुर्विधा, वेदों व धार्मिक विद्याओं का ज्ञाता इत्यादि सर्व विषयों के विशिष्ट ज्ञाता को ही – ‘‘राजपुरोहित’’ अथवा ‘‘राजगुरू पुरोहित’’ चुना जाता था । योग्य एवं उचित  परायण न होने पर राजपुरोहित को भी सर्वसम्मति एवं प्रजा की राय से पदच्युत कर दिया जाता था । उदाहरणतः रावी तट पर स्थित उतर पांचाल राज्य के राजा सुदास द्वारा ऋषिगण के विचार एवं आग्रह से विश्वामित्र को हटाकर उनके स्थान पर वशिष्ठ को यह पद सौंपा गया । इस प्रकार राजा एवं राजपुरोहित योग्य होने पर ही स्थाई होते थे अन्यथा उन पर ऋषिगण सभा द्वारा पुनः विचार किया जाता था ।
वैदिक काल में राजगुरू पुरोहित पद पर चुने गये ऋषिगण में से बृहस्पति (जो देवताओं के राजपुरोहित थे) एवं इसी वंश में ऋषि भारद्वाज, द्रोणाचार्य, वशिष्ठ, आत्रैय, विश्वामित्र, धौम्य, पीपलाद, गौतम, उद्धालिक, कश्यप, शांडिल्य, पाराशर, परशुराम, जन्मदाग्नि, कृपाचार्य, चाणक्य आदि मुख्य है। कालान्तर में इन्हीं ऋषि मुनियो के वंश विभिन्न गौत्रों, खांपो, जातियो एवं उप-जातियों के क्षत्रियों के राजपुरोहित होते गुए जिनमें सूर्यवंशी, चन्द्रवंशी, यदुवंशी – राठौड़, परमार, सोलंकी, चौहान, गहलोत, गोयल, भाटी आदि मुख्य रूप से है। भाटियों के राजगुरू पुष्करणा ब्राह्मण है। आगे चलकर वंशानुगत रूप से परम्परानुसार राजपूत एवं राजपुरोहित होते गए तथा सुदृढ़ समाज एवं जातियां बन गई । वर्तमान में जो राजपुरोहित है, इन गोत्रो में से अलग-अलग जातियों व उप जातियों में विद्यमान है (जोधपुर, बीकानेर संभाग में सघन केन्द्रित) । इसी प्रकार क्षत्रिय भी अलग-अलग जातियों, उपजातियों एवं खापों में राजपूत नाम से विख्यात है।
                                       वैदिक काल के अनुसार -‘‘वय राष्ट्रं जाग्रयाम् (रा.गु.) पुरोहितः’’ …..(यर्जुवैद – 1-23)
       अर्थात् हम (राजगुरू पुरोहित) राष्ट्र को जगाने वाले है। लोगों में (प्रमुखतः क्षत्रियों में) राष्ट्रभावना, देशभक्ति एवं मातृभूमि हेतु बलिदान देने के लिये कर्तव्यपालन की भावना जागृत करते है। इसलिये राजगुरू अर्थात् राजा का (समस्त विषयों का विशेषज्ञ) शिक्षक है। 
    सर्वगुण सम्पन्न राजपुरोहित का शनैः शनैः राज्य का सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हो जाना स्वाभाविक ही था। शुक्राचार्य ने कहा है –
‘पुरोधा प्रथम श्रेष्ठ, सर्वभ्यौ राजा राष्ट्र भक्त ।
आदु धर्म राज प्रौहितां, रणजग्य अरूं राजनित।।
अस्त्र शस्त्र जुध सिख्या, राजधर्म, राजप्रौहित।
धर्म्मज्ञः राजनीतिज्ञः षोड्स कर्मे धुरन्धरः
सर्व राष्ट्र हितोवक्ता सोच्यतै राजपुरोहितः।।
(शु.नि. 2/47 2/264)
मंत्रानुष्ठान संपन्न स्त्रिविद्या कर्म तत्परः ।
जितेन्द्रियों जितक्रोधो, लोभ मोह विजियतैः।।
षडंग वित्सांग, धनुर्वेद विचारार्थ धर्मवितः।
यत्कोप भीत्या राजर्षि धर्मनीति रतो भवते ।
नीति शास्त्रास्त्र, व्यूहादि कुशलस्तु (राज) पुरोहितः।
सेवाचार्यः पुरोधाय शायानुग्रहौ क्षमः।।
(शु.नि. 77, 78, 79)
धर्मज्ञ राजनीतिज्ञ शौडष कर्म्मधुरन्धर ।
सर्वराष्ट्र हितोवक्ता सोच्यते राजपुरोहितः।।
वेद वेदांग तत्वज्ञो जय होम परायणः ।
क्षमा शुभ वचोयुक्त एवं राजपुरोहितः।।
     उपरोक्त श्लोको में राजपुरोहित के गुण, धर्म, योग्यता व कर्तव्य का भलीभांति वर्णन है । यथा धार्मिक विद्या, राजनीति, धनुर्विधा, राष्ट्रहित, समस्त धार्मिक उत्सव आयोजन, कर्तव्यपरायण, राज्यमंत्रणा एवं राजसंचालन, रणकौशल व्यूहरचना, प्रजापालन इत्यादि राज्य के समस्त कार्यो की जिम्मेवारी के साथ-साथ राज परिवार में सद्भावना, राजपुरोहित बनाए रखता था । यही कारण था कि तत्कालीन राज्य अच्छे चलते थे ।

एक राजपुरोहित कभी भी कर्म से ब्राह्मण नहीं रहा । वह मात्र वंश से ब्राह्मण है। यथा एक ब्राह्मण राजपुरोहित अवश्य रहा है। ब्राह्मण के लिये राज्य में कोई उत्तरदायित्व नहीं होता चाहे राज्याधिपति कोई हो उसे अपने ब्राह्मणत्व से सरोकार रहता था जबकि एक राजपुरोहित पर सम्पूर्ण राज्य की जिम्मेवारी रहती थी । उसे प्रतिक्षण राज्य, प्रजा, राजा व राज्य परिवार की जिम्मेवारी रहती थी । उसे प्रतिक्षण राज्य, प्रजा, राजा व राज्य परिवार के बारे में चिन्ति रहना पड़ता था। पुरातन वैदिक काल में राजपुरोहित राज्य का मुख्य पदाधिकारी व प्रमुख मंत्री होता था । न्याय करने में राजा के साथ उसकी भागीदारी होती थी। साधारण पुरोहित, राजपुरोहित से सर्वथा भिन्न रहा । राजपुरोहित, राज्यमंत्री, शिक्षक, उपदेशक, पथ-प्रदर्शक होता था । धार्मिक एवं राजनीतिक मामलो का प्रमुख होता था । वह राजा के साथ युद्ध भूमि में जाता था एवं युद्ध में राजा को उचित सलाह एंव धैर्य देता था । वह स्वयं योद्धा एवं गोपनीय व्यक्ति होता था । वह पथ प्रदर्शक, दार्शनिक एवं मित्र के रूप में राजा का सहयोग करता था । वह राज्य की राजनीति में भाग लेता था । इस प्रकार उस समय राजपुरोहित, प्रत्येक राज्य का सर्वश्रेष्ठ, प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण व्यक्ति होता था।
                                           अर्द्धपतन –
    कालान्तर में बाहरी हमलावरो के सतत आक्रमण एवं उनके द्वारा राष्ट्र शासन करने के कारण बाहरी प्रभाव, भारत की संस्कृति पर भी पड़ा । परिणाम स्वरूप राजपुरोहित का पतन होना आरम्भ हो गया । राजपुरोहित की सलाह से राजा का चयन, उसका मंत्रिमंडल एवं राज्य में सर्वोच्‍च स्थान समाप्त हो गया एवं राजनीति में भी उसका प्रभाव कम हो गया । पूर्व की भांति अब उसका सम्मान नहीं रहा । राज्यमंत्रणा में भी उसकी भागीदारी विशेष अवसरो के अलावा नहीं रह गई थी । हां, वह युद्धो में भाग अवश्य लेता रहा । 
                                           पूर्ण पतन –
भारत में अंग्रेजी के आगमन के पश्चात् राजपुरोहितो का पूर्णतया पतन हो गया । उनका महत्व सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों तक सीमित रह गया । यद्यपि राज्य सेवाओं, युद्धों आदि में उनका योगदान अवश्य रहा । भारत के स्वतंत्रता संग्राम में सहयोग देने से प्रभावशाली राजपुरोहितो को अंग्रेजो ने पूर्णतया दबाया या नष्ट कर दिया जिनमें शिवराम राजगुरू, देवीसिंह रतलाम आदि प्रमुख है। 
                                           जीवन स्तर –
पुरातन काल में राजपुरोहित सभी प्रकार से सर्वश्रेष्ठ था किन्तु मध्यकाल में राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ गया । यद्यपि उनके पास जागीरे थी जिससे जीवनयापन कर रहे थे । अंग्रेजो के आने के पश्चात् पतन हो गया । हां, कुछ शिक्षित अवश्य हुए किन्तु राज्य सता में उनका महत्व घट गया । 
जोधपुर राज्य से मिले कुरब-कायदा-सम्मान – 
राजपुरोहित को समय-समय पर उनके शौर्यपूर्ण कार्य एवं बलिदान के एवज में सम्मानित किया जाता था जिनका विवरण इस प्रकार है –

1.  बांह पसाव,          2.हाथ रौ कुरब        3. उठण रौ कुरब,         4.  बैठण रौ कुरब,          5.पालकी,                       6. मय सवारी सिरै डोढ़ी जावण रौ             7.  खिड़किया पाग,       8.डावो लपेटो                9. दोवड़ी ताजीम            10.  पत्र में सोनो       11.ठाकुर कह बतलावण रौ कुरब
दरबार में राजपुरोहित के बैठने का स्थान छठा था । सातवां स्थान चारण का था । ये दोनो दोवड़ी, ताजीमी सरदारों में ओहदेदार गिने जाते थे । राजपुरोहित के दरबार में आने-जाने पर महाराजा दरबार एवं गुरू पदवी दोनो तरीको से अभिवादन मिलना होता था । 
राजपुरोहित के कार्य 
                                                      1. प्राचीन काल –
प्राचीन काल में राजपुरोहित राजा का प्रतिनिधि होता था । राजा की अनुपस्थिति में राजकार्य राजपुरोहित द्वारा सम्पन्न होता था । वह राज्य का प्रमुख मंत्री होता था । राजा का चयन राजपुरोहित की सलाह से होता था । न्याय- दण्ड में वह राजा का निजी सलाहकार होता था । राजा को अस्त्र-शस्त्र, युद्धविद्या, राजनीति, राज्य प्रशासन आदि की सम्पूर्ण शिक्षा राजपुरोहित देता था । जैसे गुरू द्रोणाचार्य, वशिष्ठ । समय-समय पर राज्य के धार्मिक उत्सव व यज्ञ आदि का आयोजन करवाता था । इसके लिए दूसरे पण्डित वैद्य दानादि कर्मकाण्डी ब्राह्मण नियुक्त करता था अर्थात् धार्मिक मामलो का प्रमुख मंत्री था ।
राज्याभिषेक आयोजन कर राजा का चयन करवाकर राज्याभिषेक करवाता, स्वयं के रक्त से राजा का तिलक करता, कमर में तलवार, बांधता, राजा को उचित उपदेश देता एवं उसकी कमर में प्रहार करके कहा कि राजा भी दण्ड से मुक्त नहीं होता है।  वह राजा का पथ प्रदर्शक, दार्शनिक, शिक्षक, मित्र के रूप में राजा को कदम-कदम पर कार्यो में सहयोग करता था।  वह युद्धो में राजा के साथ बराबर भाग लेता व जीत के लिए उत्साह, प्रार्थना आदि से सेना व राजा को उत्साहित करता। वह स्वयं भी युद्ध करता । वह एक वीर योद्धा तथा समस्त विषयों को शिक्षक होता था । युद्ध के समय, सेना व शस्त्रादि तैयार करवाना शत्रु की गतिविधियों का ध्यान रखना इत्यादि राजपुरोहित के कार्य थे ।  राजा तथा प्रजा व मन्त्रिमंडल में सौहार्द्धपूर्ण कार्य करवाता था। राजपरिवार की सुरक्षा, राजकुमार व राजकुमारियों के विवाहादि तथा राज्य का कोई आदेश, अध्यादेश उसकी सहमति अथवा उसके द्वारा होता था । राजपुरोहित एक राष्ट्र निर्माता होता था।
2. मध्यकाल –
    बाहरी हमलावरो के आक्रमण के परिणाम स्वरूप राजपुरोहित का पतन होना आरम्भ हो गया। अब राजा का चयन एवं राज्य  के कार्य उसके पास से जाते रहे । राजनीति में भी वह पूर्व की भांति नहीं रहा । अन्य कार्य यथा सामाजिक, धार्मिक युद्धों में भाग लेना, रनवास की सुरक्षा व सुविधा का ध्यान रखना यथावत रहे । अस्त्र-शस्त्र सैन्य शिक्षा देना बन्द हो गया । 
                                                      3. आधुनिक काल –
     भारत में अंग्रेजो के राज्य होने के पश्चात् राजपुरोहितो के कार्यो में एकदम बदलाव आया और वे सामाजिक व धार्मिक कार्यो तक सीमित रहने लगे । दरबार में राजपुरोहित का पद यथावत रहा । राजपुरोहित सामाजिक, धार्मिक कार्यो, त्यौहारो, उत्सवों में महाराजा की अनुपस्थिति में प्रतिनिधित्व करता । महाराजा के युद्ध में जाने तथा वापस लौटने, विवाह, त्यौहार, जन्मदिन आदि पर राजपुरोहित शुभाशीर्वाद देता । लौटने पर राजपुरोहित ही सर्वप्रथम आरती, तिलक कर राजा का स्वागत करता । राजा के बाहर से लम्बी यात्रा व अन्य कार्य शिकार आदि से लौटने पर भी सर्वप्रथम राजपुरोहित स्वागत करता (आरती तिलक नहीं)।
                                                          अभिवादन –
राजपुरोहित का सामान्य अभिवादन ‘‘जय श्री रघुनाथ जी की’’ है कहीं-कहीं (मालानी आदि क्षेत्र में) – ‘‘मुजरो सा’’ अभिवादन भी प्रचलित है। राजपूतो से मिलने पर ‘‘जयश्री’’ करने का भी रिवाज है। याचको से ‘‘जय श्री  रघुनाथ जी’’ व जय माताजी की’’ करने का रिवाज रहा है।
राज्य में कुरब के हिसाब से मिलान होता था और राजपुरोहित की हैसियत से भी मिलना होता था ।
                                                    ठिकाणा व जागीरी स्थिति –
    पुरातन समय में तो राजपुरोहित राज्य का सर्वाेच्च एवं सर्वश्रेष्ठ अधिकारी होता था । मध्यकाल में युद्धो में भाग लेने, वीरगति पाने तथा उत्कृष्ठ एवं शौर्य पूर्ण कार्य कर मातृभूमि व स्वामिभक्ति निभाने वालो को अलग-अलग प्रकार की जागीर दी जाती थी । इसमें राजपूत, राजपुरोहित व चारण सामानान्तर वर्ग थे । प्रमुख ताजीमें निम्न थी –

1. दोवड़ी ताजीम 2. एकवड़ी ताजीम  3. आडा शासण जागीर (क) इडाणी परदे वाले (ख) बिना इडाणी परदे वाले  4. भोमिया डोलीदार (क) राजपूतो में भोमिया कहलाते (ख) राजपुरोहितो एवं चारणो में डोलीदार कहलाते ।
राजपूत साधारण जागीरदार, राजपुरोहित व चारण को सांसण (शुल्क माफ) जागदीरदार कहलाते थे । राजपुरोहितो के याचक – राव, भाट, दमामी, पंडे, ढोली आदि थे । इसके अलावा दूसरी कमीण कारू हींडागर कौम भी रही है।रस्म रिवाज –
समस्त रस्मोरिवाज विवाह, गर्मी, तीज-त्यौहार, रहन-सहन, पहनावा इत्यादि राजपूतो व चारणो के समान ही है।
                                                                    खान-पान –
पूर्णतया शाकाहारी है। शराब का सेवन नहीं होता । अवसरो इत्यादि पर अफीम सेवन का प्रचलन रहा है एवं अभी भी है। 
     इस प्रकार राजपुरोहित एक अत्यन्त ही प्रभावशाली एवं महत्वपूर्ण समाज रहा है । शब्दकोष के अनुसार ‘‘राजपुरोहित’’ शब्द का अर्थ इस प्रकार है – राजपुरोहित -पुरातन काल में क्षत्रिय राजाओं सम्राटो को अस्त्र-शस्त्र युद्ध विद्या, राजनीति, धर्मनीति एवं चारित्रिक राज्य,समाज की शिक्षा देने वाली पुरातन वीर जाति है।                                              
                                                            राजपुरोहित – वर्तमान स्थिति –
     बदलते युग के थपेड़ो के बीच राजपुरोहित की गौरव गाथा मात्र ऐतिहासिक घटनाओं पर रह गई है। वर्तमान समय में राजपुरोहितो की स्थिति दयनीय नहीं तो अच्छी भी नहीं कही जा सकती । सामाजिक, राजनीति एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा समाज है। अल्प संख्यक है। राजकीय सेवा में भी अत्यन्त कम है। निजी व्यवसाय एवं खेती पर निर्भर रह गया है। तीनो सशस्त्र सेनाओं एवं सुरक्षाकर्मियों में अवसर प्राप्त हो जाते है। देशभक्त एवं वफादार समाज है। 
                                                                             उपसंहार – 
स्पष्ट है कि पुरातन एवं मध्यकाल में चारणो, राजपुरोहितो एवं क्षत्रियो (राजपूतो) का चोलीदामन का प्रगाढ़ रिश्ता रहा है। सांस्कृति दृष्टि (रीति-रिवाजो) से ये कभी भिन्न नहीं हो सकते । एक दूसरे के अभिन्न अंग की तरह है। इतिहास साक्षी है – पुरातन समय में राजपुरोहितो ने क्षत्रियों को अस्त्र-शस्त्र, रणकौशल, राजनीति, धर्मनीति, राज्य संचालन, प्रजापालन, धर्म, चरित्र आदि की शिक्षा दी थी । जैसे द्रोणाचार्य ने पाण्डवो को, वशिष्ठ ने दशरथ के राजकुमारो को । चारणों ने समय-समय पर उन्हे कर्तव्यपालन हेतु उत्साहित किया । उन्होने काव्य में विड़द का धन्यवाद दिया एवं त्रुटियों पर राजाओं को मुंह पर सत्य सुनाकर पुनः मर्यादा एवं कर्तव्यपालन का बोध कराया । किन्तु समय के दबले करवटों के पश्चात् अंग्रेजी शासन के बाद ऐसा कुछ नहीं रहा एवं धीरे-धीरे मिटता गया ।
संदर्भ –
1. प्राचीन भारतीय इतिहास – डॉ. वी. एस. भार्गव (पृ. सं. 41, 42, 58, 66-73)
2. प्राचीन भार – जी. पी. मेहता (पृ. सं. 26, 30, 31, 44, 46)
3. भारतीय संस्कृति का विकास क्रम – एम. एल. माण्डोत (पृ. सं. 18-20)
4. अर्थशास्त्र-कौटिल्य (चाणक्य) (पृ. सं. 1-9)
5. प्राचीन कालीन भारत (पृ. सं. 71, 72, 77, 285, 259)
6. प्राचीन भारत – वैदिक काल (पृ. सं. 78, 79)
7. राजपुरोहित जाति का इतिहास-भाग-12 – प्रहलाद सिंह (पृ. सं. 1-13)
8. तिंवरी ठिकाणे के कागज तथा मुन्नालालजी का लेख
                         राजपुरोहितो की पहचान ‘‘जय श्री रघुनाथ जी’’
     जब दो राजपुरोहित मिलते हैं, तो एक-दूसरे का अभिवादन ‘‘ जय श्री रघुनाथ जी’’ कहकर करते है। इससे मन में यह प्रतिक्रिया जाग्रत होती है कि जय श्री रघुनाथ जी ही क्यों कहा जाता है। अतः हमें इसके बारे में कुछ जानकारी अवश्य होनी चाहिए। 
     स्वर्णयुग में सूर्यवंश में एक महान् प्रतापी चक्रवर्ती सम्राट महाराज रघु हुए थे । महाराज रघु वैष्णव धर्म के अनुयायी तथा भगवान विष्णु के परम भक्त थे । महाराज रघु की कीर्ति तीनों लोकों में व्याप्त थी । महाराज रघु के नाम पर इनके कुल का नाम रघुकुल भी पड़ा । इस कुल में स्वयं भगवान रामचन्द्र जी ने अवतार लिया । महाराज रघु द्वारा भगवान विष्णु की घोर अराधना के आधार पर भगवान श्री हरी विष्णु का एक नाम रघु के नाथ (रघुनाथ) भी पड़ा । जब हम रघुनाथ का नाम संबोधन में प्रयुक्त करते हैं तो हम उसी प्राण पुरूषोतम ब्रह्मपरमात्मा सृष्टि के पालनकर्ता श्री विष्णु की जयघोषण करते है।

     वैसे सम्बोधन किसी भी प्रकार से किया जा सकता है परन्तु प्रचलन का एक अलग ही महत्व होता है। इसी कारण आपसे कोई राजपुरोहित बन्धु ‘‘जय श्री रघुनाथ जी की’’ कहे तो आप तुरन्त समझ जायेगे कि वह व्यक्ति राजपुरोहित है। यही इसी सम्बोधन में निहित सार है। 
                  

सुरेश राजपुरोहित ईटवाया

Previous Post Next Post