*आत्महत्या का हब बनता बाड़मेर*
एक जमाने मे #सीमांत_मरुस्थल और यहां के लोग विकट परिस्थितियों में कुदरत को पराजित करके और विज्ञान को चुनोती देकर भी जीवनयापन कर लेते थे पर समय के साथ साथ यहां सुविधाएं और सौगाते बढ़ी और साथ ही कई दुविधाएं भी...!
कभी कर्मण्यता व जीवनसंघर्ष का प्रतीक रहा #थार, आज रिश्तों मे बढती कड़वाहट, खत्म होते रिश्ते, अवैध सम्बन्धों, प्रेम प्रसंगों, कर्ज की चिंता,
आजीविका के अभाव, नफरत, द्वेष, ईर्ष्या व मानसिक तनाव जैसे कारणों की वजह से आत्महत्या के मामलों में सम्पूर्ण देश मे नम्बर 01 के पायदान पर है।
यहां के लोग हर परिस्थिति मे आत्महत्या को ही अतिम विकल्प मानने लगे है और
यही वजह हैं कि थार मे पिछले कुछ वर्षों से आत्महत्या के मामले लगातार बढते जा रहे है।
पिछले चार साल के आकडों पर नजर डालें तो थार में हर 48 घंटे बाद एक शख्स ने खुदकुशी करके दुनिया को अलविदा कहा है।
बदलते वक्त और बढ़ती आधुनिकता ने में सब कुछ बदल रहा है और इस बदलाव ने ना सिर्फ जिले की चाल बदली है बल्कि दिशा व दशा भी बदल दी है।
कल तक जीवन संघर्ष का पर्याय रही थार नगरी बाड़मेर आज अवसाद का पर्याय बन गई हैं,
कल तक जहां जिदंगी सघर्ष कर रही थी और रणबांकुरे मूँछो पर तांव देकर मौत के साथ कबड्डी खेला करते थे आज वहाँ मौत जिन्दगी को आंखे दिखा रही है।
निराशा और हताशा का आलम ये है कि बाड़मेर ज़िला पुलिस के आंकड़ों के मुताबिक़ 2015 में 139 मामले, 2016 में 134 मामले और 2017 में 125 मामले खुदकशी के सामने आए है जबकि 2018 में भी ये आँकड़े कम होने की बजाय बढ़े है।
2015 से 2018 तक करीब 550 से अधिक लोग खुदकुशी द्वारा मौत को गले लगा चुके हैं और ये सरकारी ऑफ्फिसियल आंकड़े है कुल संख्या इससे भी कही अधिक होगी।
एक पूरा जीवन जो इस धरा पर आने में सतरंगे सपनों से लेकर नौ माह का खूबसूरत समय लेता है, अचानक अपनों को रोता-बिलखता छोड़कर चल देता है अज्ञात में सुख खोजने।
क्या जरूरी है कि मौत के बाद सारी समस्याएँ सुलझ जाएँगी...?
असमय प्रकृति का नियम तोड़ने से हो सकता है आप और अधिक अनजानी अजीब समस्याओं के जाल में उलझ जाएँ।
बहरहाल, आत्महत्याओं के बढ़ते आँकड़ों से निकलती आह को अनसुना नहीं किया जा सकता।
*क्या_है_वजह :*
खतरनाक रूप से बढ़ रही इस नकारात्मकता ने अचानक सबको चिंता में डाल दिया है।
आखिर क्यों बढ़ रही है खुद को खत्म करने की यह खौफनाक प्रवृत्ति...?
यूँ तो गरीबी अपने आप में एक अहम वजह है परेशानी और पीड़ा की लेकिन बाड़मेर जैसे जिले में गरीबी की वजह से आत्महत्या को जायज नही ठहराया जा सकता है।
*सहनशक्ति_का_अभाव*
भारतीय मानस पहले इतना कमजोर कभी नहीं था जितना अब दिखाई पड़ रहा है।
कम सुविधा व सीमित संसाधन में भी संतोष और सुख से रहने का गुण इस देश की संस्कृति में शुरू से रचा-बसा है,
जिसका सबसे बड़ा आधार हमारी आध्यात्मिकता रही है।
आम भारतीय ईश्वर में दृढ़ विश्वास कर हर परिस्थिति में हिम्मत और धैर्य रखता आया है लेकिन जैसे-जैसे 'लक्जरी' ने जरूरतों का रूप धारण आरंभ किया है, आधुनिकता, आर्थिक उदारीकरण और टेक्नोलॉजी ने चारों दिशाओं में पंख पसारे हैं वैसे-वैसे तेजी से एक साथ सब कुछ हासिल करने की लालसा से जीवनशैली में भी तीव्रतर बदलाव हुए है और इंसान लगातार ईश्वर व आध्यात्मिकता से दूर होता जा रहा है।
जिसकी वजह से जीवन स्तर की असमानता और मानसिक तनाव व्यक्तित्व को लगातार कुंठित बना रही है।
समय के साथ साथ सहनशक्ति और समझदारी विलुप्त हो रही है।
*सामाजिक_पारिवारिक_संरचना_ध्वस्त_होना*
बदलते दौर में टीवी-मोबाईल, सोशल मीडिया की डिजिटल संस्कृति ने परस्पर संवाद को कमतर किया है।
परिणाम-स्वरूप माता-पिता के पास बच्चों से बात करने का समय नहीं बचा है। यह स्थिति दोनों तरफ है, आज का किशोर और युवा भी व्यस्तता से त्रस्त है। कंप्यूटर-टीवी ने खेल संस्कृति को डसा है।
आउटडोर गेम्स के नाम पर बस क्रिकेट बचा है।
टीम भावना विकसित करने वाले, शरीर में स्फूर्ति प्रदान करने वाले और खुशी-उत्साह बढ़ाने वाले खेल अब विलुप्त हो रहे हैं।
प्राइवेसी को आवश्यकता से अधिक बढ़ावा मिला है जिसके तहत आस पड़ोस और संवाद पिछड़ गया है।
यही वजह है कि ना बाहरी रिश्तों में सुकून है ना घर के रिश्तों में शांति।
दोस्ती व संबंधों का सुगठित ताना-बाना अब उलझता नजर आ रहा है।
नानी-दादी की कहानियाँ और संयुक्त परिवार व्यवस्था तो त्रेता या द्वापर में ही पीछे छूट गयी है।
कल तक जो संबल और सहारा हुआ करते थे आज वे बोझ और बेमानी लगने लगे हैं।
*टूटते_रिश्ते*
रिश्तों में बढ़ती कड़वाहट के कारण आज के दौर में रिश्ते कच्चे धागों की तरह टूटते जा रहे है, आपसी अनबन, मनमुटाव, नोक झोंक, मिस अंडर स्टैंडिंग और संवेदनशीलता के अभाव में आये दिन रिश्ते काच की तरह टूटते जा रहे जिससे मानसिक अवसाद व आत्महत्या को बढ़ावा मिल रहा है।
*प्रेम_प्रसंग_व_अवैध_सम्बन्ध*
आज आत्महत्या के अधिकतर मामलों की जड़ में प्रेम प्रसंग व अवैध सम्बन्ध है।
बढ़ती चकाचौंध, आधुनिकता, पश्चिम सँस्कृति का बढ़ता प्रभाव, बॉलीवुड व रील लाइफ ने रियल लाइफ को अपनी ओर आकर्षित किया है,जिसकी वजह से युवा प्रेमजाल में धसते जा रहे है और जब प्रेम प्रसंग में असफलता हाथ लगती है या बात जाति बिरादरी व धर्म सम्प्रदाय पर आकर रुक जाती है तो ऐसे में खुदकुशी को अंतिम विकल्प मान लिया जाता है।
आत्महत्या के बढ़ते ग्राफ में अवैध सम्बन्ध भी एक महत्वपूर्ण कारण रहा है।
*बिखरता_युवा_वर्ग*
देश की युवा शक्ति आज के हाँफते-भागते दौर में अस्त-व्यस्त-त्रस्त है या फिर अपनी ही दुनिया में मस्त है।
आत्मकेन्द्रित युवा अपने सिवा किसी को देख ही नहीं रहा है।
जब उसे पता ही नहीं है कि दुनिया में उससे अधिक दुखी और लाचार भी हैं तब वह अपने दुख-तकलीफों को ही बहुत बड़ा मान लेता है।
घर आने पर कोई उससे यह पूछने वाला नहीं है कि उसके भीतर क्या चल रहा है। हर कोई टीवी के कार्यक्रमों के अनुसार अपनी दिनचर्या निर्धारित करने में लगा है। किसे फुरसत अपने ही आसपास टूटते-बिखरते अपने ही घर के युवाओं को जानने-समझने की...?
उनकी भावनात्मक जरूरतों और वैचारिक दिशाओं की जाँच-पड़ताल करने की..?
एक दिन जब वह आत्मघाती कदम उठा लेता है तब पता चलता है कि ऊपर से शांत और समझदार दिखने वाला युवा भीतर कितना आँधी-तूफान लिए जी रहा था।
वास्तव में माता-पिता को समय के साथ बदलना होगा,कब तक सारी की सारी अपेक्षाएँ संतान से ही की जाती रहेगी...?
ढेर सारे सामाजिक दबाव, सारी जिम्मेदारियाँ उसी की क्यों...?
सारे समझौते वही क्यों करें ? दबाव की इस स्थिति को माँ-बाप, निकट रिश्तेदार और मित्र ही कुशलता से निपटा सकते हैं, अगर वे चाहें।
शर्त ये है उन्हें उसकी मनोदशा को समझना होगा और उसके कन्धे पर हाथ रखकर उसका हौसला बढाये, उसे प्रेरणा दे और तनाव से उबरने में उसकी सहायता करें।
*समाधान_हमारे_भीतर_ही_है*
जी हाँ, समाधान कहीं और से नहीं हमारे ही भीतर से आएगा,खुद को खत्म कर देने की बात जब आती है तो दूसरों को दोष देने में थोड़ा संकोच होता है।
वास्तव में हम स्वयं ही हमारे लिए जिम्मेदार होते हैं।
कोई भी दुख या तकलीफ जिंदगी से बड़ी नहीं हो सकती।
हर व्यक्ति के जीवन में ऐसा दौर आता है जब सबकुछ समाप्त सा लगने लगता हैं लेकिन इसका सार यह तो नहीं कि खुद ही खत्म हो जाएँ।
हर आत्महत्या करने वाले को एक बार, सिर्फ एक बार यह सोचना चाहिए कि क्या उसकी जिंदगी सिर्फ उसकी है...?
इस जिंदगी पर कितने लोगों का कितना-कितना हक है, क्या उसे पता है..?
क्या वह जानता है कि उसकी मौत के बाद उसका परिवार, दोस्त, रिश्तेदार, करीबी लोग कितनी-कितनी मौत मरेंगे....?
हमें कोई हक नहीं उस जिंदगी को समाप्त करने का जिस पर इतने सारे लोगों का अधिकार है।
जब रोशनी की एक महीन लकीर अंधेरे को चीर सकती है, जब एक तिनका डूबते का सहारा बन सकता है और एक आशा भरी मुस्कान निराशा के दलदल से बाहर ला सकती है तो फिर भला मौत को वक्त से पहले क्यों बुलाया जाए...?
जिंदगी परीक्षा लेती है तो उसे लेने दीजिए, हौसलों से आप हर बाजी जीतने का दम रखते हैं, यह विश्वास हर मन में होना चाहिए और फिर हमारे तो शास्त्रों में कहा गया है कि इंसान का जन्म 84 करोड़ योनियों के बाद नसीब होता है तो इसे क्यों ऐसे ही व्यर्थ गंवाया जाए...?
जिले को इस तरह के भयावह आकडों से बाहर निकालने की, थार के युवाओं को उचित मार्गदर्शन की व समय पर चेतने की शख्त आवश्यकता है अन्यथा वह दिन दूर नही जब थार की युवा पीढ़ी का जीवन भी थार की भांति बंजर और वीरान बनकर रह जायेगा....!